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जीवन की कश्ती

  • Writer: Mayan Kansal
    Mayan Kansal
  • Jun 13, 2014
  • 1 min read
यूं तो आज भी कुछ नही हूँ मैं, फिर भी कभी कभी सोचता हूँ— —कितनो से आगे निकल आया हूँ, और कितना आगे निकल आया हूँ!

कभी जिनकी किस्मत को भाग्यवान समझ ता था, उनके भाग्य का वो वाहन, पीछे छोड़ आया हूँ मैं! इम्तिहान तो मेरे भी उतने ही हुए, सच कहूँ तो उन सब से ज्यादा ही हुए, जीत आया हूँ कितना—बीत गया न जितना!

यूं तो औकात नही आज भी कुछ मगर, वैसा ही है जीवन, बस कुछ बढ गई ये उम्र, जीना कुछ कुछ सीख लिया है इस ज़िन्दगी से की आँसूं में यादें और गम मे गज़ल – देख पाया हूँ मैं!

यूं तो रास्ता आज भी उतना ही डग-मगा रहा है, जीवन आज भी मेरे डूबते जहाज को डुबा रहा है, मगर सागर की कश्ती और बत्तख की हस्ती की तरह, पानी के ऊपर रहना सीख ही लिया कुछ कुछ।

©मयन, June 13, 2014

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